Wednesday, November 20, 2024
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Vedaa Movie Review:एक्शन दमदार लेकिन दलित संघर्ष के मुद्दे के साथ नहीं कर पायी है न्याय

फिल्म – वेदा
निर्देशक – निखिल आडवाणी
निर्माता – जॉन अब्राहम
कलाकार -जॉन अब्राहम,शरवरी वाघ,अभिषेक बनर्जी,आशीष विद्यार्थी, क्षितिज चौहान और अन्य
प्लेटफार्म – सिनेमाघर
रेटिंग -ढाई

vedaa फिल्म अभिनेता जॉन अब्राहम और निर्देशक निखिल आडवाणी की बाटला हाउस के बाद साथ में दूसरी फिल्म है. बाटला हाउस की तरह यह फिल्म भी रियल लाइफ घटनाओं से प्रेरित है.फिल्म के आखिर में क्रेडिट नोट से पहले इसका जिक्र भी हुआ है.हिंदी सिनेमा में दलित किरदार और उनका संघर्ष कहानी की धुरी गिनी चुनी फिल्मों में हैं.वो भी कमर्शियल सिनेमा में यह आंकड़ा और भी कमजोर दिखता है.इसके लिए निखिल आडवाणी, जॉन अब्राहम के साथ पूरी टीम बधाई की पात्र है.आजादी के 78 बाद भी यह मुद्दा सामायिक है.इसकी गवाही कई घटनाएं समय -समय पर देती रहती है.फिल्म का विषय बेहद संवेदनशील है,लेकिन फिल्म का ट्रीटमेंट पूरी तरह से एक्शन वाला है, जिससे यह फिल्म इस संवेदनशील मुद्दे के साथ उस तरह से न्याय नहीं कर पायी है.जैसी जरुरत थी.जिससे मामला औसत वाला रह गया है.एक्शन से लबरेज यह सोशल मैसेज वाली फिल्म एक बार देखी जा सकती है.

एक्शन से लबरेज है यह दलित संघर्ष की है कहानी
कहानी की शुरुआत में वेदा (शरवरी )बेतहाशा भाग रही है, जैसे खुद को किसी से बचाना है और कहानी छह महीने पीछे कश्मीर में पहुंच जाता है.जहाँ गोरखा रेजिमेंट का ऑफिसर अभिमन्यु (जॉन अब्राहम )एक आतंकी को अपने सीनियर्स के मना करने पर भी मार देता है क्योंकि उस आतंकी ने उसकी पत्नी (तमन्ना भाटिया) की हत्या की थी. सीनियर्स को वह आतंकी जिन्दा चाहिए था,जिसके बाद अभिमन्यु को आर्मी से निकाल दिया जाता है और अभिमन्यु राजस्थान के बाड़मेर में अपने ससुर के पास पहुंच जाता है क्योंकि उसने अपनी पत्नी को वादा दिया था.वह वहां के लोकल कॉलेज में बॉक्सिंग का कोच बन जाता है. वह वहां पर जाति के नाम पर एक लड़की वेदा (शरवरी वाघ )को कदम कदम पर ऊँची जाती के रसूख वाले लोगों से संघर्ष करते देखता है.जो उसके बॉक्सिंग सीखने के सपने को भी पूरा होते नहीं देखना चाहते हैं. वेदा को अभिमन्यु खुद से ट्रेनिंग देने का फैसला करता है, लेकिन वेदा की मुश्किलें इससे कम नहीं होती है बल्कि उसके और उसके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ उस वक्त टूट जाता है.जब उसके भाई को एक ऊंची जाति की लड़की से प्यार हो जाता है.ऑनर किलिंग के नाम पर वेदा के परिवार में उसके भाई की हत्या कर दी जाती है और बड़ी जाति के रसूख वाले लोग अब वेदा और उसकी बहन से बदला लेना चाहते हैं.वेदा की बहन को जिंदा जला दिया जाता है और अब खुद को समाज का ठेकेदार समझने वाले वेदा को उसकी जाति के अनुसार उसकी औकात बताना चाहते हैं, लेकिन वेदा की ढाल उसके कोच सर हैं. किस तरह से अभिमन्यु का किरदार ऊंची जाति के इन लोगों और उनसे चल रहे पूरे सिस्टम से वेदा को बचाने के लिए भिड़ता है.यही फिल्म की कहानी है.

फिल्म की खूबियां और खामियां
यह फिल्म दलितों के संघर्ष की संवेदनशील कहानी को सामने लेकर आती है.हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा फिल्मों में इस विषय की ज्यादातर अनदेखी हुई है, जिसके लिए इस फिल्म की टीम की जितनी तारीफ की जाए वो कम है,लेकिन फिल्म के विषय के साथ इसका ट्रीटमेंट न्याय नहीं करता है.मामला पूरी तरह से एक्शन वाला रह गया है.कई बार इसमें 90 के दशक की फिल्मों की छाप दिखती है.जहाँ हीरो हीरोइन को किसी दबंग से बचाता है.यहां बस कहानी में नायिका को दलित बना दिया गया है.फिल्म के आखिर दृश्यों में कहानी को कोर्ट से जोड़ना इसका अच्छा पहलू है हालांकि फिल्म के आखिर में ही मोनोलोग के जरिये दलित के मानवीय अधिकारों के हनन की बात हुई है. वेदा कानून की स्टूडेंट है. यह फिल्म के आखिर में ही मालूम पड़ता है. उससे पहले वह संविधान का इस्तेमाल एक बार भी अपने और अपनों की रक्षा के लिए क्यों नहीं करती है. यह फिल्म अपने मूल मकसद से भटकी हुई दिखती है.फिल्म के स्क्रीनप्ले में वेदा के किरदार को अपने सपनों के लिए अपमान सहने से लेकर मार तक खानी पड़ती है.ये दृश्य आपको सोचने पर मजबूर करते हैं,लेकिन लम्बे समय तक याद नहीं रह पाते हैं. निर्देशक के तौर पर निखिल आडवाणी की यह चूक है.फिल्म के स्क्रीनप्ले में यह भी चूक खलती है कि शरवरी को फिल्म में उनकी बहन फाइटर बुलाती है, लेकिन फिल्म का स्क्रीनप्ले इस टैग के साथ न्याय नहीं कर पाया है.कई बार आपको लगता है कि शरवरी हमेशा जॉन के किरदार के पीछे क्यों छिप रही है.वह फाइट बैक क्यों नहीं कर रही है.फिल्म के क्लाइमेक्स में वेदा का किरदार फाइटर के तौर पर दिखता है.स्क्रीनप्ले में इस बात का भी वाजिब जवाब नहीं दे पायी है कि आखिर क्यों जॉन का किरदार सभी के खिलाफ जाकर वेदा को बचाता है, जबकि उसने अपनी पत्नी को अपने ससुर की देखभाल करने का वादा किया था. फिल्म में कोच सर और स्टूडेंट के बीच खास बॉन्डिंग को डेवलप करना चाहिए था.फिल्म के गीत संगीत की बार करें तो मौनी रॉय पर फिल्माया मम्मीजी और लोक गीत होलिया में उड़े रे गुलाल को अलग ढंग से पेश किया गया गया है हालाँकि यह फिल्म में ज्यादा कुछ नहीं जोड़ पाया है.अगर सीधे शब्दों में कहें तो इनकी जरूरत नहीं थी. फिल्म के संवाद कहानी और किरदारों के साथ न्याय करते हैं.बाकी के पहलू भी ठीक ठाक हैं.

जॉन अब्राहम अपने चित परिचित अंदाज में हैं दिखें
अभिनय की बात करें तो अभिनेता जॉन अब्राहम अपने चित परिचित अंदाज में नजर आये हैं. एक्शन दृश्यों में माहिर हैं और यह फिल्म उन्हें हर दूसरे ही सीन में यह करने का मौका देती है. एक बुलेट से तीन लोगों का काम तमाम करना हो या फिर हवा में उछालकर लोगों को उनके अंजाम तक पहुंचाना.यह सब इस फिल्म में है. कुछ एक्शन दृश्य खास उन्हें ध्यान में रखकर डिजाइन किये गए हैं.जैसे चलती हुई कार का स्टेरिंग उखाड़ लेने वाला दृश्य ऐसा ही कुछ था.शरवरी वाघ ने अपने अभिनय से प्रभावित करती हैं.एक दलित के गुस्से,दर्द और बेबसी को उन्होंने परदे पर लाने की अच्छी कोशिश की है.अभिषेक बनर्जी भी अपनी नकारत्मक भूमिका के साथ न्याय करते हैं, लेकिन मामला यादगार जैसा नहीं बन पाया है. क्षितिज चौहान अपने अभिनय से नफरत हासिल करने में कामयाब रहे हैं. उनके अभिनय की यही जीत है.आशीष विद्यार्थी को उनके पुराने अंदाज में देखना दिलचस्प है. बाकी के किरदारों ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है.


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