Saturday, November 16, 2024
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Vat Savitri Vrat 2024 : प्रकृति की पूजा का पर्व है वट सावित्री व्रत

Vat Savitri Vrat 2024 : वट-सावित्री व्रत के दौरान बरगद वृक्ष की विधिवत पूजा की जाती है. सनातन धर्म में बरगद, पीपल आदि वृक्ष जीवनदायिनी माने गये हैं एवं पौराणिक धार्मिक कथाओं में इनसे जुड़े अनेकों किस्से मिलते हैं.
वस्तुत: आस्था के इस पेड़ को मानव-जीवन का संरक्षक इसलिए भी माना जाता है कि इस पेड़ की संरचना बिलकुल जीवधारियों जैसी है. इनसे जीव जगत को होने वाले लाभ को विज्ञान भी मान्यता देता है. अरब देशों में इस तरह के वृक्षों को आजाद-ए-दरख्त-ए-हिंद कहा जाता है.

सलिल पांडेय, मिर्जापुर
वट प्रजाति के वृक्षों में बरगद के साथ पीपल, गूलर, पाकर, ढेसूर पेड़ शामिल हैं. अपनी टहनियों से स्वयं को वेष्टित (स्वयं को लपेट लेना) करने के कारण ये वटवृक्ष हैं. इसमें सबसे अधिक वेष्टन करने वाला वृक्ष बरगद ही है.ढेसूर तो चट्टानी पहाड़ों के पत्थरों पर उगता है, पीपल अहर्निश ऑक्सीजन देता है, लेकिन बरगद तो धरती को आग का गोला होने से बचाता है. केवल भारत में नहीं, बल्कि कई विकसित देशों में इन पेड़ों का नामकरण धर्म के साथ जोड़कर फाइबर रिलीजियस, फाइकस ग्लूमेरेटियस आदि से किया गया है. अरब देशों में भी भारत में पूजे जाने वाले अनेक वृक्षों को महत्व दिया जाता है. इस तरह के वृक्षों को आजाद-ए-दरख्त-ए-हिंद कहा जाता है.

वट-सावित्री व्रत के दौरान बरगद की विधिवत पूजा की जाती है. तीन दिन के व्रत में पहले दिन एक वक्त आहार (नक्तव्रत) लेकर व्रत का संकल्प, दूसरे दिन फलाहार और अंतिम दिन अमावस्या को पेय पदार्थो के साथ व्रत का विधान है. तीन दिवसीय जितने व्रत हैं, उनमें इन नियमों का पालन करने का विधान है. सबसे पहले विमाता सुरुचि के अपमान से आहत उत्तानपाद के पुत्र बालक ध्रुव ने 15-15 दिनों तक इस नियम का पालन किया था. जिस पर प्रसन्न होकर स्वयं नारायण को आना पड़ा था. इन व्रतों के माध्यम से मानव खुद को प्रकृति के साथ संघर्ष और तालमेल दोनों बनाता है.

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त्रेता में श्रीराम एवं द्वापर में श्रीकृष्ण ने की थी इन पेड़ों की पूजा

वट सावित्री व्रत की मान्यता तो सत्ययुग में पतिव्रता सावित्री द्वारा अपने पति को कठोर तपस्या के बल पर यमराज के चंगुल से मुक्त कराने से जुड़ी है, लेकिन त्रेता में श्रीराम एवं द्वापर में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इन पेड़ों की पूजा की. वनस्पति विज्ञान की रिपोर्ट के अनुसार, यदि बरगद के वृक्ष न हो तो ग्रीष्म ऋतु में धरती पर जीवन नष्ट हो जायेगा. मानव सहित सभी जीव जिंदा नहीं रह सकते. धरती अग्निकुंड बन जायेगी और सब उसी में झुलस कर यमराज के मुख में समा जायेंगे. श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के 18वें अध्याय के अनुसार, कंस का दूत प्रलम्बासुर गोकुल को भस्म करने के लिए इसी ज्येष्ठ मास में भेष बदलकर आता है. कृष्ण ग्वालबालों संग खेल में लगे हैं. अग्नि-वर्षा करने में माहिर प्रलम्बासुर की योजना थी कि वह कृष्ण जैसे प्रकृति-वैज्ञानिक का अपहरण कर मार डालेगा तो गोकुल तबाह हो जायेगा. लेकिन कृष्ण उसे पहचान लेते हैं और वे अपने दल के साथ जिस पेड़ से मदद लेते हैं, वह बरगद का ही पेड़ था जिसका नाम भांडीर था. श्रीकृष्ण आग बरसाने वाले प्रलम्बासुर की आग को पी जाते हैं.

भारद्वाज ऋषि ने श्रीराम को बरगद का आशीर्वाद लेने कहा था

वनस्पति-विज्ञान के रिसर्च के अनुसार, सूर्य की ऊष्मा का 27 प्रतिशत हिस्सा बरगद का पेड़ अवशोषित कर पुनः आकाश में लौटा देता है, बल्कि उसमें नमी प्रदान कर लौटाता है, जिससे बादल बनता है और वर्षा होती है. सूर्य की आराधना में गायत्री मंत्र के ‘वरेण्यं’ शब्द का आशय ही है कि सूर्य की वरणयोग्य किरणें ही मिलें और जीवन को प्रकाशित करें. बरगद की इन्हीं विशेषताओं के चलते जंगल को हरा-भरा और अहल्या-उद्धार यानी जिस भूमि पर हल न चलता हो, वहां हरियाली पैदा करने त्रेता युग में वनवास पर निकले भगवान श्रीराम जब भारद्वाज ऋषि के आश्रम में पहुंचने के एक दिन पूर्व रात्रि-विश्राम के लिए रुकते हैं तब लक्ष्मण जी वट वृक्ष के नीचे ही विश्राम की व्यवस्था करते हैं. दूसरे दिन प्रातः भारद्वाज ऋषि भी अपने आश्रम ले जाते हैं और जब वहां से चित्रकूट की तैयारी करते हैं तो ऋषि ने यमुना की पूजा के साथ बरगद के पेड़ की पूजा कर उससे आशीर्वाद लेने का उपदेश दिया. उस श्यामवट से जंगल के प्रतिकूल आघातों से रक्षा की प्रार्थना माता सीता करती हैं. श्रीमद्वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के 55वें सर्ग में इसका उल्लेख है-

ततो न्यग्रोधमासाद्य महान्तं हरितच्छदम् ।
परीतं बहुभिर्वृक्षै: श्यामं सिद्धोपसेविताम् ।।6
तस्मिन् सीतांजलिं कृत्वा प्रयुञ्जीताशिषां क्रियाम् ।
समासाद्य च तं वृक्षं वसेत् वातिक्रमेत वा ।। 7

बिलकुल जीवधारियों जैसी है इस पेड़ की संरचना

  आस्था के इस पेड़ को मानव-जीवन का संरक्षक  इसलिए भी माना जाता है कि इस पेड़ की संरचना  बिलकुल जीवधारियों जैसी है. मनुष्य के  मस्तिष्क(ब्रेन) से निकलने वाले नर्वस सिस्टम  (तंत्रिका प्रणाली) की तरह इसकी जटाएं ऊपर से  नीचे आती हैं और अपनी जड़ों, तना को ताकत देते  हुए यह पेड़ लंबे दिनों तक छाया देता है. शरीर में भी  मस्तिष्क से मेरुदंड (स्पाइनल कॉर्ड) के सहारे  मेरुरज (कैनियल नर्वस) बरगद की जटाओं  (टहनियों और वटोहों) की तरह नीचे की ओर आती  हैं, जिसमें कुल 64 नर्व्स शरीर को स्वस्थ बनाने की  भूमिका अदा करते हैं. इसमें सर्वाइकल, डारसल,  लंबर आदि हैं. नर्व्स और आर्टरी (नस-नाड़ियों) का  काम रक्त संचालन में प्रमुख हैं. इसमें कहीं भी विकृति  या व्यवधान आने पर व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है. इस  दृष्टि से बरगद वृक्ष मानव शरीर की तरह है. खुले  स्थान पर इसके रोपण से इसका घेरा इतना बड़ा हो  जाता है कि हजारों-हजार लोग इसके नीचे बैठ सकते  हैं और इसकी ऊंचाई 100 फीट तक पहुंच जाती हैं.

बरगद से जुड़ी है सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा

वट सावित्री व्रत और पूजन के पीछे ऋषियों का लोकजीवन में इस पेड़ के संरक्षण का स्वयं-प्रयास पैदा करने का भी था. सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा के भी संकेत प्रकृति के सहारे अकाल मौत के मुंह जाने से बचना भी है. सावित्री मद्रदेश के राजा अश्वपति की कन्या थी. संतानविहीन राजा ने वेदमाता सावित्री की कठोर तपस्या की, जो सूर्य की पुत्री हैं. उनके वरदान से पैदा हुई कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया. सूर्य की वरेण्य किरणों के साथ योग के फलस्वरूप प्राप्त कन्या सावित्री के तेज के चलते कोई राजकुमार जब विवाह योग्य नहीं मिला तो पिता के आदेश पर सावित्री ने धर्मनिष्ठ एवं सत्यनिष्ठ शाल्वदेश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र से स्वयं वरण करने का निर्णय किया. विवाह की तैयारी शुरू हुई कि इसी बीच महर्षि नारद आ गये और सत्यवान की आयु एक साल ही बताया. पिता की चिंता देख सावित्री ने कहा कि एक पति को कन्यादान का संकल्प और किसी प्रकार के दान की घोषणा को स्वहित में बदलना शास्त्रविरुद्ध है. सावित्री की दृढ़ता पर विवाह संपन्न हो गया. नारद द्वारा बताये गये मृत्यु-दिवस के चार दिन पूर्व सावित्री को बुरा स्वप्न आता है.

दूसरे दिन वह निराहार व्रत का संकल्प ले कर यज्ञ-समिधा के लिए पति के साथ जंगल में लकड़ी लेने खुद भी चलने के लिए कहती है जिस पर श्वसुर अनुमति यह कहते हुए देते हैं कि विवाह के बाद से सावित्री ने कभी कोई इच्छा नहीं प्रकट की. इसलिए यदि वह जंगल जाना चाहती है तो जा सकती है. इन दिनों द्युमत्सेन का राज्य शत्रुओं ने छीन लिया था तथा खुद राजा की आंख की रोशनी गायब हो गयी थी. शास्त्रों में यज्ञ आदि के लिए यज्ञकर्ता को खुद लकड़ी लाना चाहिए. श्रीराम के यज्ञादि के लिए लक्ष्मणजी लकड़ी लाते थे. इस प्रकार सत्यवान को उस दिन लकड़ी काटते हुए अचानक सिर में तेज दर्द होने लगा. सावित्री पति का सिर गोद में लेकर बैठ गयी. तभी एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ और सत्यवान का अंगुष्ठ बराबर प्राण लेकर जाने लगा. सावित्री ने दिव्य पुरुष से पूछा- आप कौन हैं? जवाब मिला- मैं यमराज. फिर सावित्री बोली- प्राण लेने तो आपके यमदूत आते हैं, आप स्वयं क्यों आये?
जिस पर वे बोले-सत्यवान एक धर्मनिष्ठ और सत्यनिष्ठ राजकुमार है, इसलिए मैं स्वयं आया, दूतों में सत्यवान को ले जाने की क्षमता नहीं है. इन्हीं लगातार संवादों के बीच पतिव्रता पर प्रकृति के संरक्षक बरगद की छत्रछाया का असर कि वह अपने श्वसुर द्युमत्सेन की नेत्रज्योति लौट जाये, खोया राज्य वापस हो जाये और स्वयं पुत्रवती बन जाये, का वरदान यमराज से ले बैठी. क्रूर कार्य करने वाला सत्यनिष्ठ के आगे असंतुलित हो जाता है. वरदान के बाद भी यमराज सत्यवान को यमलोक ले ही जा रहे थे और सावित्री उनका पीछा कर रही थी. यमराज ने कहा और भी जो वरदान मांगना हो, मांग लो, लेकिन सत्यवान तो जीवित नहीं हो सकेगा. तब सावित्री ने कहा-पुत्रवती होने का आप वरदान दे चुके हैं. अंत में यमराज ने सत्यवान का प्राण वापस किया. इस कथानक से स्पष्ट है कि प्रकृति के साथ घुलमिल कर और तालमेल बनाकर जीवन जीने से तमाम तरह के शारीरिक रोग और मन की सदप्रवृतियां नष्ट नहीं होंगी.

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