‘एक दिन नारद मुनि और विष्णु जी वन में जा रहे थे. अचानक भगवान विष्णु थककर एक वृक्ष के नीचे बैठ गये. वे प्यास से व्याकुल हो चुके थे. सो उन्होंने Devarshi से पानी की व्यवस्था करने को कहा.’
एक बार नारद मुनि को अभिमान हो गया कि तीनों लोकों में उनसे बड़ा विष्णु भक्त दूसरा कोई नहीं है. वे जहां भी जाते नारायण के गुणों के साथ-साथ अपनी भक्ति का भी गुणगान करने लगते. भगवान विष्णु को जब इस बात का पता चला, तो उन्होंने नारद मुनि को इस बुरी आदत से मुक्त करने का निर्णय किया. एक दिन नारद मुनि और विष्णु जी वन में जा रहे थे. अचानक भगवान विष्णु थककर एक वृक्ष के नीचे बैठ गये. वे प्यास से व्याकुल हो चुके थे. सो उन्होंने Devarshi से पानी की व्यवस्था करने को कहा. अपने आराध्य की प्यास बुझाने के लिए मुनि जल की व्यवस्था करने चल पड़े.
एक कन्या को देख अपनी सुध-बुध खो बैठे थे देवर्षि
जल की खोज में देवर्षि नारद अभी थोड़ी ही दूर ही गये थे कि उन्हें एक गांव दिखाई पड़ा. देवर्षि गांव की ओर बढ़ चले. वहां जाकर देखा तो एक कुएं पर कुछ युवतियां जल भर रही थीं. उनमें से एक युवति उनके मन को इतनी भा गयी कि वे अपनी सुध-बुध खो बस उसे एकटक निहारने लगे. युवति को देखने के बाद देवर्षि इस बात को भूल गये कि वे अपने आराध्य की प्यास बुझाने के लिए जल लेने यहां आये हैं. उधर वह युवति भी समझ गयी कि नारद मुनि उस पर मोहित हैं. उसने जल्दी से कुएं के जल से अपना घड़ा भरा और सहेलियों को छोड़ अकेले ही तेज कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ी. कन्या को जाते देख नारद मुनि भी उसके पीछे-पीछे चल दिये और उसके घर तक पहुंच गये. कन्या तो घर के अंदर चली गयी परंतु मुनि द्वार पर खड़े होकर ‘नारायण’, ‘नारायण’ जपने लगे. उधर उस कन्या के पिता और गृहस्वामी को जब द्वार पर नारायण का जाप सुनाई दिया तो वह बाहर आया. उसने देवर्षि नारद को देखते ही पहचान लिया और उन्हें विनम्रता और आदर के साथ घर के अंदर ले आया. सेवा-सत्कार के बाद कन्या के पिता ने मुनि के आने का प्रयोजन पूछा और अपने योग्य सेवा का आग्रह किया. देवर्षि ने शीघ्र ही उस कन्या से विवाह करने का प्रस्ताव गृहस्वामी के सामने रख दिया, जिसके पीछे-पीछे वे यहां तक आये थे. गृहस्वामी एकदम चकित रह गया, किंतु वह इस बात से अति प्रसन्न भी था कि एक महान मुनि ने उसकी पुत्री के साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त की है. गृहस्वामी ने स्वीकृति देने के साथ ही मुनि को अपने ही घर में रख लिया. इसके पश्चात, शुभ मुहूर्त देखकर उसने अपनी कन्या का विवाह मुनि के साथ कर दिया.
जब अपने आराध्य और वीणा दोनों को भूल गये नारद मुनि
विवाह के पश्चात देवर्षि अपनी पत्नी के साथ उसी गांव में रहने लगे. अब उनका जीवन अपनी पत्नी के पिता की दी हुई भूमि पर खेती कर आराम से गुजरने लगा. उन्होंने वीणा को घर की एक खूंटी पर ऐसे टांग दिया जैसे उससे उनका कभी कोई नाता ही नहीं था. अब न तो उन्हें अपने आराध्य की याद आती, न ही अपने उस वीणा कि जो उन्हें अत्यंत प्रिय थी. अपनी पत्नी के आगे वे नारायण तक को भूल चुके थे. दिनभर खेती में लगे रहते. कई वर्ष बीत चुके थे. अब नारद जी तीन बच्चों के पिता बन चुके थे. उन्हें एक क्षण की भी फुरसत न थी. पर एक रात ऐसी मूसलाधार बारिश हुई कि मुनि का सर्वस्व पानी में बह गया. अपनी और पत्नी-बच्चों की जान बचाने के लिए वे एक गठरी में कुछ मूल्यवान वस्तुओं को लेकर घर से बाहर निकल पड़े. पर नियति तो कुछ और ही खेल खेल रही थी. उनकी गठरी पानी में बस गयी, साथ ही उनके तीनों बच्चे भी एक-एक कर पानी में बह गये. बच्चों के बिछड़ने का दुख पति-पत्नी से सहा नहीं जा रहा था. रोते-कलपते दोनों किसी ऊंची जगह की खोज में चले जा रहे थे. तभी कुछ ऐसा हुआ कि दोनों एक गड्ढे में समा गये. देवर्षि तो किसी तरह बाहर आने में सफल रहे, पर उनकी पत्नी का कुछ पता न चल सका. इस तरह नारद मुनि की पूरी गृहस्थी ही उजड़ गयी.
जब याद आये नारायण, तब लौटी सुध
पत्नी-बच्चों को याद कर नारद मुनि का कलेजा फटा जा रहा था. वे सोच रहे थे कि इस विपत्ति के लिए वे किसी दोषी ठहरायें, अपने आपको या भगवान को. भगवान का स्मरण होते ही जैसे कुछ चमत्कार हुआ और उन्हें पुरानी सभी बातें याद आ गयीं. याद आया कि वे तो वन से जल लेने के लिए निकले थे और न जाने कहां फंस गये. इतना याद आते ही वे बेचैन हो उठे कि उनके आराध्य प्यास से व्याकुल थे. वे सोचने लगे कि वे कहां जल लेने आये थे और गृहस्थी बसाकर बैठ गये. वर्षों बीत गये, क्या नारायण अब भी उनकी प्रतीक्षा में होंगे, क्या वे अब भी वृक्ष के नीचे लेटे होंगे? उनके इतना सोचते ही बाढ़ गायब हो गयी. उन्होंने देखा तो वे जहां खड़े थे वह कोई गांव नहीं बल्कि एक घना वन था. न ही उसके आसपास कोई गांव था. नारद जी पछताते हुए दौड़े. कुछ ही दूरी पर उसी वृक्ष के नीचे उन्हें भगवान विष्णु पूर्ववत लेटे मिले. भगवान विष्णु देवर्षि को देखते ही उठ बैठे और उनसे बोले कि कहां चले गये थे नारद, बड़ी देर लगा दी. पानी लाये या नहीं. नारद जी भगवान के चरण पकड़कर बैठ गये. उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे. ये पश्चाताप के आंसू थे. उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल रहा था. प्रभु मुस्कुराये और बोल कि तुम अभी तो गये थे. अधिक देर नहीं हुई और तुम लौट भी आये. पर नारद मुनि को लग रहा था कि जैसे वर्षों बीत गये हैं. वे समझ चुके थे कि यह सब प्रभु की माया थी, जो उनके अभिमान को चूर करने के लिए उन्होंने रची थी. नारद मुनि का अभिमान चूर-चूर हो गया था कि त्रिलोक में उनसे बढ़कर नारायण का दूसरा कोई भक्त नहीं है. वे पुन: सहज तरीके से अपना जीवन जीने लगे.