Guru Purnima 2024 : अगर हम सिखने की चिंगारी अपने अंदर रखते है, तो संसार एक खुली किताब है और उसमें दृश्यमान रूप, तत्व या शब्द उस किताब के विभिन्न पृष्ठ. इसकेे हर पृष्ठ हमारे लिए गुरु की भूमिका मेें होते हैं. हम उसे पढ़ते नहीं. अगर हमें नदी, पहाड़, मंदिर, जंगल, प्रकृति को पढ़ने आ गया, तो उससे अच्छाई की एक धारा फूट पड़ेगी.
डॉ मयंक मुरारी
हमारे आंखों के सामने प्रकृति खुली पड़ी है. सब गुरु की भूमिका अदा करने को व्याकुल हैं, बस हम इसे पढ़ना और समझना सीख लें, तो कई सुंदर कहानियां बन जायेंगी. आंखें खुली हों तो समूचा अस्तित्व ही विद्यालय है. जीवन में सजग होकर चलने से प्रत्येक अनुभव प्रज्ञा बन जाता है. अगर हम अस्तित्व के हरेक रचना को उघाड़े, उनको पढ़े तो हम ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हैं, अन्यथा द्वार पर आये आलोक भी हमको जगा नहीं सकता.
सत्य की तलाश में जब बुद्ध पहुंचे गुरु के पास
गृहत्याग करने के बाद सत्य की खोज में घूमते हुए बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम छह वर्षों तक विभिन्न गुरुओं के पास गये. उनसे ज्ञान प्राप्त किया. सत्य के विविध रूपों को जाना. जब बुद्ध जान लेते, तो सवाल करते, अब क्या करूं गुरुदेव? गुरु का जवाब होता कि जितना मैं जानता हूं, उतना बता दिया, इसके आगे मुझे पता नहीं. अब तुम्हें कोई और गुरु खोजना होगा. महात्मा बुद्ध के अंतिम गुरु थे- अलार कालाम. इनके गुरुओं में रूद्रक, उद्दक रामपुत्त आदि का नाम आता है. महीनों तक तथागत ने उनके शरण में रहकर ज्ञान प्राप्त किया. फिर एक दिन वहां पहुंच गये, जहां अलार कालाम की मेधा थी. बुद्ध ने उनसे फिर वही सवाल किया. तब अलार कालाम ने जो जवाब दिया, वह आज के गुरु के लिए सीख बन सकती है. उन्होंने कहा कि अब तुम्हें और गुरु खोजने होंगे. जो मैं जानता था, मैंने बता दिया. अब आगे कुछ पता चले, तो मुझे भी बता देना. सारे गुरुओं के बाद भी जब रास्ता नहीं निकला, तो वे खुद सत्य की खोज पर निकल पड़े.
गुरु को हम कहां खोजें, किसको मानें?
पौराणिक कथा है कि भगवान दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाये. वे कहते थे कि जिस किसी से भी सीखने को मिले, हमें अवश्य ही उनसे सीखने का प्रयास करना चाहिए. उनके 24 गुरुओं में कबूतर, पृथ्वी, सूर्य, पिंगला, वायु, मृग, समुद्र, पतंगा, हाथी, जल, मधुमक्खी, मछली, बालक, कुररपक्षी, अग्नि, चंद्रमा, कुमारीकन्या, सर्प, तीर, मकड़ी, भृंगी, अजगर और भौंरा है.
गोस्वामी तुलसीदास ने गुरु वंदना करते हुए लिखा है- ‘‘बंदौं गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि। महामोहतम पुंज, जासु वचन रविकर निकर।’’ अर्थात् गुरु नर रूप ईश्वर हैं और उनकी सीख, उनके विचार सूर्य की किरणों की भांति होते हैं, जिनसे मोह का पुंज स्वतः समाप्त हो जाता है. ज्ञान विद्या का लक्ष्य ही मोह का विनाश है, क्योंकि मोह ही सभी व्याधियों, परेशानियों की वजह है.
गुरु के पास शिष्टभाव से जायें
परमात्मा तत्व की प्राप्ति के लिए उपनिषद ने एक महत्वपूर्ण सूत्र दिया है- ‘तद् विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्’ अर्थात उसे जानने के लिए जिज्ञासु व्यक्ति गुरु के पास जाये कैसे? उसी सूत्र में आगे कहा गया है कि ‘समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम’ अर्थात- गुरु के पास हाथ में समिधा लेकर शिष्टभाव से जायें. भाव है – समिधा अग्नि पकड़ती है. गुरु के पास ज्ञानज्योति है. साधना समिधा जैसी पात्रता लेकर जायें. कैसे गुरु के पास? जो श्रोत्रिय अर्थात् ज्ञान से श्रुतियों का ज्ञाता हो, उनका तत्व समझता हो और ब्रह्मनिष्ठम् अर्थात आचरण से ब्रह्मनिष्ठ हो. ब्रह्म अनुशासन को समझता भी हो और उसका पालन करने की निष्ठा, क्षमता भी रखता हो. ऐसा संयोग जहां बनेगा, परमात्मा तत्व की प्राप्ति अवश्य होगी.
गुरु और शिक्षक में क्या है अंतर
शिक्षक शिक्षा देता है और गुरु शिक्षा के साथ साथ दीक्षा देता है. दीक्षा का तात्पर्य है कि प्राप्त शिक्षा का जीवन, समाज और देश के उत्थान में उपयोग करना. दीक्षा मार्गदर्शन करती है कि कैसे शिक्षा का उपयोग हो, कहां हो. इसी कारण भारतीय जीवन में दीक्षांत समारोह की अवधारणा थी. गुरु के दो प्रकार हैं- एक शिलाधर्मी और दूसरा आकाशधर्मी. शिलाधर्मी गुरु खुद ही विद्यार्थियों पर निर्भर हो जाते हैं. वे अहं के साथ घोषणा करते हैं कि हम जो कह रहे हैं, वहीं सत्य है. उसको मानो और आगे बढ़ो. दूसरी ओर आकाशधर्मी गुरु अपने विद्यार्थियों को आकाश की तरह अनंत और अछोर का अंतर्ज्ञान देते हैं.
वर्तमान के अधिकांश शिक्षक आपको आजीविका देते हैं, गुरु आपको जीवन देते हैं. शिक्षक हमारे जीवन में जानकारियों को भरता है, गुरु हमारी जानकारियों को खाली कर खुद खोजने को कहते हैं. इस युग में गुरु बहुत कम बचे हैं. गुरु वह है, जो हमको श्रेय यानी श्रेष्ठ की, सत्य की और शुभ की यात्रा कराता है. शिक्षक हमें प्रेय यानी इच्छा और भौतिक जीवन की अभिलाषा को तृप्त करने की कला सिखाता है.
आज बदल गयी है विद्यालय की परिभाषा
यही कारण है कि हम बच्चों को नहीं सुनते. हमारे पास कम समय रहता है बच्चों को गौर से समझने की. जब माता-पिता की वह नहीं सुनता, तो शिक्षक कहां सुनेगा. न समय है और न ही गुरु की तरह हृदय. कदाचित युगों में यमराज जैसा कोई गुरु मिलता है, जो नचिकेता को सुनता है तब कठोपनिषद जैसे महान ग्रंथ बनते हैं. एक बच्चे का जिज्ञासु मन, कितना सवाल उठाता है. काश! कोई यमराज-सा गुरु होता तो फिर श्रेष्ठता की यात्रा करता हमारा समाज. आज भी हम बच्चों को सुनें, समझें और साथ चलें, तो क्रांति आ जाये. लेकिन समय नहीं है. आजीविका के लिए गणित, भूगोल, साइंस फिजिक्स सीखना है. ज्ञान प्राप्त करना है. आज तो विद्यालय की परिभाषा ही बदल गयी है. विद्यालय वह है, जहां व्यक्ति को स्वयं को को खोजने की, सत्य को पाने की शिक्षा मिलें, न कि आजीविका पाने की, टॉपर बनने तथा वासनाओं की तृप्ति का ज्ञान मिले.
हमें शांत और मौन की कला सीखनी होगी
समस्या तब शुरु हुईं, जब ज्ञान को केवल मस्तिष्क से जोड़ दिया गया. ज्ञान केवल मस्तिष्क से नहीं ली जा सकती. ज्ञान का संबंध सिर से नहीं होता है. गुरु की सिखावन तो हृदय से सुनी जाती है. गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें अपना जीवन रूपांतरित करना होगा. हम जैसे हैं, वैसे ही विद्यालय पहुंच गये, गुरु के सम्मुख हो के गये, तो कुछ प्राप्त नहीं होगा. इसके लिए गुरु यानी शिक्षक की तरफ उन्मुख होना पड़ेगा. हमें शांत और मौन की कला सीखनी होगी. केवल बाहरी नहीं, अंदर से भी सबकुछ छोड़कर गुरु के शरणागत होना होगा. आज भी विद्यालय में वही बच्चे उत्कृष्टता को प्राप्त करते हैं, जो खाली होते हैं. जो भरे होते हैं, वह साधारण ही रह जाते हैं. खाली होने के अर्थ है कि मन में कोई उधेड़बुन नहीं हो. सिर यानी विचार अपने घर पर रखें और हृदय लेकर विद्यालय जाये. यह दिमाग ही है, जो सुनता कुछ है और समझता कुछ है. और परिणाम हम खाली रह जाते हैं.
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पहले ‘मैं’ का अहं त्यागना होगा
उपनिषदकालीन महान दार्शनिक उद्दालक अरुणि की बचपन की कथा हम जानते हैं. किसी प्रकार गुरु धौम्य की आज्ञा से बरसात की पानी को खेत से बाहर जाने से रोकने के लिए वे खुद खेत में लेट गये थे.
दो रास्ते हैं- चुनाव के या सुनने के. एक है बुद्धि, जो हमेशा द्वैतभाव में रहती है. ठीक है या गलत. बुद्धि सदैव अहंकार को पालती है. अपनी अस्मिता के साथ चलती है. जबकि दूसरा रास्ता है हृदय का. हृदय हमारी चेतना को स्वच्छ रखता है. जीवन को विचार के भंवरजाल में पड़ने ही नहीं देता. यह सिर है अहंकार का, मैं का और अपनी अस्मिता की चिंता का. जब तक यह भाव है कि मैं हूं, यह मैं मिटने को राजी नहीं, तब तक कोई व्यक्ति शिष्य नहीं हो सकता और उसको गुरु नहीं मिल सकता. जब चेतना स्वच्छ हो जाये, मन से विचार तिरोहित हो जाये और जीवन में ताजगी का वास हो, तब हम सच्चे शिष्य हो सकते हैं.
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