Jitiya Vrat Katha in Hindi 2024: महिलाएं जितिया का व्रत निर्जला रखती हैं, अर्थात इस व्रत के दौरान अन्न और जल का सेवन नहीं किया जाता है. यह पर्व छठ व्रत की तरह तीन दिनों तक मनाया जाता है, लेकिन इसका सबसे महत्वपूर्ण दिन आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि होती है, जब जितिया का निर्जला व्रत किया जाता है. इसी दिन शाम को जीमूत वाहन की पूजा के समय उनकी कथा का श्रवण किया जाता है. आइए, हम आपको जितिया की व्रत कथा के बारे में बताते हैं.
गन्धर्वों में एक राजकुमार थे, जिनका नाम ‘जीमूतवाहन’ था. वे अत्यंत उदार और परोपकारी व्यक्ति थे. उन्हें बहुत कम समय में सत्ता प्राप्त हुई, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया. उनका मन राज-पाट में नहीं लगता था, इसलिए उन्होंने राज्य छोड़कर अपने पिता की सेवा के लिए वन में जाने का निर्णय लिया. वहीं उनका विवाह मलयवती नाम की एक राजकन्या से हुआ.
जीवित्पुत्रिका व्रत को लेकर पूरी तैयारी
एक दिन, जब जीमूतवाहन वन में भ्रमण कर रहे थे, उन्होंने एक वृद्ध महिला को विलाप करते हुए देखा. उसकी पीड़ा को देखकर वे अचंभित रह गए और उससे उसके दुख का कारण पूछा. वृद्धा ने उत्तर दिया, “मैं नागवंश की स्त्री हूं और मेरा एकमात्र पुत्र है. पक्षीराज गरुड़ के सामने प्रतिदिन एक नाग का बलिदान देने की प्रतिज्ञा की गई है, और आज मेरे पुत्र ‘शंखचूड़’ को बलि चढ़ाने का दिन है. यदि मेरा इकलौता पुत्र बलि पर चढ़ गया, तो मैं किसके सहारे अपना जीवन व्यतीत करूंगी?”
जीमूतवाहन की यह बात सुनकर उनका हृदय द्रवित हो गया. उन्होंने आश्वासन दिया कि वे उनके पुत्र की जान की रक्षा करेंगे. जीमूतवाहन ने निर्णय लिया कि वे स्वयं को लाल वस्त्र में लपेटकर वध्य-शिला पर लेट जाएंगे. उन्होंने अंततः ऐसा ही किया. ठीक समय पर पक्षीराज गरुड़ भी वहां पहुंचे और उन्होंने लाल कपड़े में लिपटे जीमूतवाहन को अपने पंजे में पकड़कर पर्वत की चोटी पर ले जाकर बैठ गए.
गरुड़जी ने देखा कि उन्होंने जिनको अपने चंगुल में पकड़ा है, उनके आंखों में आंसू नहीं हैं और न ही उनके मुंह से कोई आह निकल रही है. यह उनके लिए एक अनोखा अनुभव था. अंततः गरुड़जी ने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. पूछने पर जीमूतवाहन ने उस वृद्धा महिला के साथ हुई अपनी सारी बातचीत साझा की. पक्षीराज गरुड़ इस बात से चकित रह गए. उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई व्यक्ति किसी की सहायता के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी दे सकता है.
गरुड़जी ने इस साहस को देखकर अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त की और जीमूतवाहन को जीवनदान प्रदान किया. इसके साथ ही उन्होंने भविष्य में नागों की बलि न लेने का भी आश्वासन दिया. इस प्रकार एक मातृसंतान की रक्षा सुनिश्चित हुई. मान्यता है कि तभी से पुत्र की सुरक्षा के लिए जीमूतवाहन की पूजा की जाने लगी.
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