लचर ट्रीटमेंट ने बंदा सिंह चौधरी की प्रेरणादायी कहानी को बना दिया है बेहद कमजोर
फिल्म :बन्दा सिंह चौधरी
निर्माता :अरबाज खान
निर्देशक :अभिषेक सक्सेना
कलाकार : अरशद वारसी ,मेहर विज,कियारा खन्ना,जीवाशु , शिल्पी मारवाह और अन्य
प्लेटफार्म :सिनेमाघर
रेटिंग :दो
Banda Singh Chaudhary Review: गुमनाम नायकों की कहानी पर्दे पर लाने की फ़ेहरिस्त में बंदा सिंह चौधरी का नाम भी शुमार हो गया है .असल घटना पर आधारित यह फिल्म बताती है कि बंदा सिंह ने अपने हौसले से ८० के दशक में पंजाब में फैले आतंकवाद से लड़कर मिसाल कायम की थी , हालांकि उसे खबरों के पन्नों में जगह नहीं मिली थी .इसी भूली बिसरी कहानी को फिल्म बंदा सिंह चौधरी के ज़रिए पर्दे पर लाया गया है . फिल्म का कॉन्सेप्ट और कहानी प्रेरणादायी है ,लेकिन फिल्म का बेहद कमजोर स्क्रीनप्ले उसके साथ न्याय नहीं कर पाता है .जिस वजह से फ़िल्म पर्दे पर वह प्रभाव नहीं छोड़ पायी है. जैसी उम्मीद थी.
हौसले की है कहानी
फिल्म की कहानी बन्दा सिंह चौधरी (अरशद वारसी ) की है, जिसका परिवार चार पुश्त पहले बिहार से काम की तलाश में पंजाब आया था लेकिन अब वह यही का होकर रह गया है . परिवार के नाम पर बंदा सिंह के पास उसका गांव और गांव के लोग ही हैं . इसी बीच उसकी ज़िंदगी में लली( मेहरा विज ) आती है.शादी होती है और बेटी के जन्म के बाद उनका परिवार पूरा हो जाता है. कुछ ही साल बीते होते हैं कि पंजाब में 80 के दशक का वो काला अध्याय शुरू हो जाता है, जिसमे भाईचारे की जगह पंजाब में उग्रवाद ने ली थी. दहशतगर्द फ़रमान सुना देते हैं कि बंदा सिंह हिंदू है इसलिए वह सिखों के साथ नहीं रह सकता है . उसे पंजाब छोड़कर जाना होगा ,लेकिन बंदा सिंह अपने घर और पिंड को छोड़कर नहीं जाने का फ़ैसला लेते हुए दशतगर्दों से लोहा लेने की ठान लेता है . इसके बाद क्या होता है . यही आगे की कहानी है .
फ़िल्म की खूबियां और खामियां
फ़िल्म का विषय जितना सशक्त है वह पर्दे पर स्क्रीनप्ले में इतना ही कमजोर बन गया है .धार्मिक उन्माद, आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर फ़िल्म ऐसा कुछ ठोस पर्दे पर नहीं ला पायी है ,जो आपको झकझोर दे. बंदा सिंह का किरदार बंदूक़ के साथ इतना सहज कैसे था . उसके अतीत में ऐसा कुछ हुआ था . हालांकि फ़िल्म में बचपन के कुछ सेकेंड्स के सीन में बस बंदूक़ से निशाना लगाते दिखाया गया है ,जबकि इस पर एक बैक स्टोरी होनी चाहिए थी .फ़िल्म की कहानी पूरी तरह से प्रिडिकेटेबल रह गई है .फ़िल्म में उतार चढ़ाव की भी कमी खलती है . फ़िल्म का क्लाइमेक्स भी आपको चौंकाता नहीं है बल्कि वह आपको पहले से ही पता होता है . फ़िल्म में कुछ एक दृश्य बेहद इमोशनल बन सकते थे . बच्चे की हत्या वाला दृश्य हो या फिर जीवाशु के किरदार की मौत वाला लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले के साथ कमजोर एडिटिंग ने सीन को प्रभावशाली बनने नहीं दिया है .फ़िल्म के दूसरे पक्षों की बात करें तो सिनेमेटोग्राफ़ी की तारीफ़ करनी होगी . उस दौर की बखूबी दर्शाया गया है .फ़िल्म के हर फ्रेम में आपको पंजाब की ख़ुशबू और 80 का दशक नज़र आता है .गाने कहानी और सिचुएशन के साथ न्याय करते हैं . संवाद भी कहानी के अनुरूप हैं .
कलाकारों का सधा अभिनय
अभिनय की बात करें तो अरशद वारसी ने अपनी भूमिका और साथ न्याय किया है . शुरुआत में वह अपने चित परिचित कॉमिक अंदाज़ में नज़र आते हैं ,लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है . उनका अभिनय भी सीरियस होता चला गया है . वह कुछ ख़ास कर गये हैं ,ऐसा नहीं है लेकिन उनकी कोशिश अच्छी ज़रूर है .मेहर विज की तारीफ़ करनी होगी . उन्होंने लाली के किरदार में छाप छोड़ी है . गटका और तलवारबाज़ी के हुनर को उन्होंने बखूबी दिखाया है . उनकी बेटी की भूमिका में नज़र आयी बच्ची फ़िल्म में एक सुकून जोड़ती है .बाक़ी के किरदार भी अपनी- अपनी भूमिका में ठीक ठाक रहे हैं .
उर्मिला कोरी
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